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रेलवे के बच्चे

मेरे मन के बुलबुले
मेरे मन के बुलबुले
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हमारे शहर में एक रेलवे स्टेशन है, आप के शहर में भी होगा….पास में मंदिर भी है , आप के यहाँ भी होगा…..तो भाई बात ये है की ये स्टेशन कई लोगो का परमानेंट रैन बसेरा और खाने की जगह है……..ममता बहन और दूसरे रेल मत्रियो को दुवायें देते हुए कई लोग जिनको की उनकी मानसिक या शारीरिक हालत की वजह से परिवार यहाँ पर छोड़ जाते है, वे यहाँ पर आजीवन बसेरा पा जाते है. ऐसा आपके शहर में भी जरूर होगा. पर हमारे यहाँ कुछ नया हुआ…..दो पागल युवतियां भी इसी जमात में थी जिनका न कोई परिवार न संबधी…….दिन में भीख मांग कर खाना और रात में वहीँ सो जाना. पर अब उनके नए सम्बन्धी भी आ गए हैं….दो नन्हे से प्यारे से बच्चे……शायद दोनों ही लड़कियां हैं. अपनी माँ से चिपकी हुई सी वो भी भीख मांगना सीख रहीं हैं. पर मुद्दे की बात ये है की उनकी इस धरती पर आमद कराने वाले उनके माननीय पिता जी लोगो का कोई अता पता किसी को नहीं है………बस लोग कभी कभी गली देने के लिए उनको याद कर लेते है………ये बच्चे रात के अँधेरे में लोगो की जगी हुई कुत्सित हवस का जीता जगता सबूत हैं……कुछ शायद किसी गाडी के नीचे आ जायेंगे, कुछ की इह लीला और किसी तरीके से समाप्त हो जाएगी………और राह चलते लोगो को एक सेकेंड का शोक मानाने का मौका मिल जायेगा. पर वो अभागे जो जी जायेंगे उनका क्या? कैसा होगा उनका जीवन? समाज में क्या होगा उनका स्थान……..का इनके लिए भी ऋतंभरा जी की तरह ममता दीदी कोई आश्रम नहीं खोल सकती….समाज की गलतियों को सम्हालने का एक मौका तो अगले बजट में दिया ही जा सकता है…….आपका क्या मत है?

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