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मेरी पीढ़ी का दुर्भाग्य

मेरे मन के बुलबुले
मेरे मन के बुलबुले
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पिछले दिनों मेरे एक अभिन्न मित्र के पिता की मृत्यु मेरे लिए असंख्य प्रश्न छोड़ गयी. प्रश्नों को बताने से पहले थोड़ी भूमिका आवश्यक है तो बताता हूँ…….हम सभी मित्र इंजिनियर हैं और उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर उन्नाव में पैदा हुए हैं. पर नौकरियां या तो मेट्रो में करते है या फिर देश के बाहर.फेस बुक पर तो अक्सर मिलते है पर फेस टू फेस कम ही मिल पाते हैं. हमारे पिता जी लोग उस ज़माने के हैं जब की परिवार नियोजन शुरू हुआ था परिणामतः छोटा परिवार सुखी परिवार को सिद्ध करते हुए हम सभी या तो अकेले बच्चे है या फिर किसी किसी को एक भाई या बहन है. सब कुछ अच्छा चल रहा था जब तक हमारे पिता जी लोग अच्छे स्वाथ्य का लाभ लेते हुए नौकरी कर रहे थे और माएं भी हमारा पुराना घर सम्हाल रहीं थीं. पर उम्र अपना खेल दिख रही है. पुरानी पीढ़ी को नयी की जरूरत पड़ रही है……पर दोनों की अपनी मजबूरियां हैं. वो उस शहर को छोड़ना नहीं चाहते जिसमे उन्होंने अपनी पूरी जिन्दगी बितायी……पैसा तो अलग है पर एक पहचान भी कमाई. मेरे पिता जी के शब्दों में….” यहाँ पर लोग तुमको मेरे लडके के नाम से जानते हैं……वहां पर लोग मुझे तुम्हारे पिता जी के रूप में जानेगे..” .पर हमारी पीढ़ी के लिए अपना कैरियर है…..और जिम्मेदारियां भी हैं. तो कुछ ने पुराने पेड़ों को जड़ों से उखाड़ कर नयी जगह पर रोपने का प्रयास किया. मेरे मित्र भी उन्ही में आते है. काका जी जो की अभी अच्छे खासे थे २ महीने में चल बसे…..और काकी वापस अपने घर आ गयीं.
पर प्रश्न ये है की हमारा होगा क्या? इन दो पीढ़ियों में जमीन आसमान का फर्क है. पुरानी ने जहाँ रोज़ घर आ कर पूरे परिवार के साथ खाना खाने का सुख भोगा नाते रिश्तेदारियां निभायीं और अपना बुढ़ापा भी पेंसन से निश्चिन्तता से बिताया वहीँ आज की जिन्दगी थकाऊ भाग दौड़ की है. परिवार के साथ तो बस छुट्टियाँ ही मिल पाती है. और वो भी गिनी चुनी. भविष्य के लिए भी आज से ही सोचना है. ज्यादातर घरों में जहाँ मिया बीवी दोनों ही नौकरी करते हैं हालात और भी खराब हैं. पुराने नियम कायदे और व्यवस्थाएं टूट रही हैं. कोल्हू के बैल जैसी जिन्दगी हो गयी है . इ ऍम आई के फेर में सब जकड सा गया है. क्या यही वो पारितोषिक था जिसके लिए अपने बचपन की इतनी रातें किताबों में बर्बाद कर दी हमने? कम से कम हमसे पुराने वाले हमसे ज्यादा अमीर थे , संतुष्ट थे अपने जीवन से. यहाँ तो अवसाद की मात्र ज्यादा है.
और इन बूढ़े हो चले शहरों का क्या? क्या यहाँ कोई बचेगा रहने को आज से १५ से २० सालों बाद? खैर सच ये है की हम लोग कहाँ जा कर मंजिल पाएंगे ये कहना कठिन है , नए तौर तरीके अभी तो अच्छे लग रहे हैं पर उनकी कीमत हम क्या दे कर चूका रहे है ये बहुत देर में समझ आएगा. आखिर में एक व्यंग उन्ही काका जी के शब्दों में की बाप से अच्छा चौकीदार और माँ से अच्छी आया/ नौकरानी नहीं मिल सकती हम सभी के गाल पर तमाचा है.

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