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शीर्षक पंक्तियाँ भगवत गीता से ली गयी हैं और मेरे मन में हमेशा ही आ जाती है जब मै किसी की अर्थी जाते देखता हूँ. व्यक्ति के व्यवहारिक ज्ञान चछु कमोड की सीट पर बैठ कर खुलते हैं और असली वाले शमशान घाट जा कर. कल तक जो हसता बोलता लड़ता था प्रेम करता था…….हजारों चिंताओं से घिरा हुआ था आज किस प्रकार जा रहा है…….चिंता तो क्या खट्टी मीठी यादें भी छोड़ कर जा रहा है. यदि आप अर्थी निकलने से पहले विलाप के समय भी उपस्थित थे तो अगले कुछ घंटे किसी से बात कर पाना भी मुश्किल ही होता है. घाट पर दो विषय प्रमुखता से चलते है……पहला की वो व्यक्ति कैसा था और कैसे ये सब हो गया. दूसरा की सब मायामोह यहीं छूट जाता है. पर पिछले कुछ समय से तीसरा विषय भी आ गया है…….” कितना समय लगेगा?”
जमाना बदल गया है. पहले की रीत थी की ऐसे समय में सभी को सूचना दे दो. यदि आप दूर कहीं से ‘मिटटी’ ले कर आ रहे हो तो गाँव घर के लोग सूचना मिलने पर तयारियां शुरू कर देते थे. कुछ पडोसी स्वतः ये जिम्मेदारी लेते थे की सब होने के बाद चाय पानी और खाने की व्यवस्था करनी है. बांस लाने से अर्थी तैयार करने तक……सभी का सहयोग रहता…….जिससे आपकी दुश्मनी तक हो वो भी इस समय जरूर आता…….’ ख़ुशी में शामिल नहीं तो कोई बात नहीं….पर ग़मी में तो शामिल होना ही पड़ता है ये तो सब पर पड़ती है. और जब आदमी ही चला गया तो रंजिश किससे निभानी है’ . जिनसे भी आपका परिचय होता और गाँव, मोहल्ले से ‘घर पीछे एक आदमी’ घाट तक साथ जाते; अर्थी को कन्धा देते वापस भी साथ में आते. सारे सम्बन्धी दसवें पर नहाने आते और बाल बनवाते. फिर तेरहवीं का भोज………जब हम छोटे थे तो बड़ी कोफ़्त होती की मोहल्ले में किसी के घर भी ग़मी हो हमारे घर का टी वी; रेडिओ ४ से ५ दिनों के लिए बंद और उसके बाद भी कुछ दिनों तक कम आवाज़ में सुनने की साफ़ हिदायत थी .
पर हाल के कुछ दिनों में नए अनुभव हुए. कुछ लोग इसलिए नहीं आते क्यों की उन्हें सीधे परिवार वालों से सूचना नहीं मिली. जो आते भी है वो भी सीधे घाट पर हाजिरी लगाने और चिता में अग्नि जैसे ही दी जाती है वापस होने लगते हैं. घाट पर भी पंडो से ले कर और काम करने वालों की पैसे की नोच खसोट के लिए मेरे पास कोई शब्द नहीं हैं. अभी जल्दी में ही एक और भयावह अनुभव हुआ जब हुतात्मा के परिजनों ने चिता को अग्नि देने के बाद मुझे आ कर बोला की अब जा सकते हैं……’फूल’ घर पर पहुचाने के पैसे दे दिए हैं. क्या इस कदर गिर गएँ हैं हम की जिस पिता ने हमें जिन्दगी भर पाला उसके लिए तीन से चार घंटे तक नहीं हमारे पास अंतिम समय में चिता के पास शोक करने को? दसवें के बजाये तिराता शुरू कर दिया…….बरखी और तेरहवीं साथ में कर दी,दसवें पर सर मुडवाने के बजाये बस छोटे करवालिये, चलो मान लिया एक बार की समय या साधनों की कमी थी , पर ये तो हद ही हो गयी की पिंड प्रवाह कर के तिलांजलि देने को पुत्र तक भी न रुकें …….अब शायद कुछ दिनों बाद घरों या अस्पतालों से मूवर्स एंड पैकर्स और शमशान घाट सोसाइटी के संयुक्त सहयोग से सीधे बुकिंग की जा सकेगी की आप घर पर ही रहें घर से ले कर घाट तक सब कुछ कर के अस्थि कलश आपके घर तक पहुच जायेगा……लकड़ी के प्रकार और चितादाह्न की अन्य व्यवस्थाओ को ले कर शायद एक मीनू कार्ड भी बना दिया जाये . तेरहवीं और गयाभोज भी इवेंट मैनेजर सम्हाललेंगे …….वाह रे भारत के सपूतों धन्य हो तुम, पर ये मत भूलना की कल को ये दिन तुमको भी देखना है क्यों की “जातस्य ही ध्रुवो मृत्युम “
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